Monday, 28 November 2011

तेरा मर्तबा जितना


तेरा  मर्तबा  जितना  बड़ा  तेरी  सोच  उतनी  जदीद  है |
मुझे दोस्त तू जबसे मिला मेरा दिल तो तेरा मुरीद   है ||

तू  हमीद  है  तू  करीम  है  तू  हबीब  है  तू   वहीद  है |
हर हाल में तेरी हर  रज़ा  मुझे  मुद्दतों  से  मुफ़ीद  है ||

तेरे कितने ऊँचे ख़याल हैं तेरा कितना ऊँचा वक़ार  है |
मेरे सामने तेरा अक्स हो तो  मैं मान लू कि मजीद है ||

मेरे घर में तेरी ये हाजिरी तेरी रूह में  ये  जो  सादगी |
तुझे क्या बताऊँ मेरे लिए तेरी दीद कितनी   सईद है ||

तेरा हाथ कितना खुला हुआ तेरी रहमतें हैं ये बेहिसाब |
यूँ लुटा रहा है रहीम सा  न  गवाह  कुछ  न   रसीद  है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Thursday, 24 November 2011

बात ये ख़ूब


बात   ये  ख़ूब  जानता  हूँ        मैं |
ज़िंदगी  में  ठगा  गया  हूँ        मैं ||

जिसकी अपनी नहीं कोई मंजिल |
एक  भटका  सा  क़ाफिला  हूँ  मैं ||

कितना  पीछे  रहा  हूँ  लोगों    से ?
बारहा  मुड़  के  देखता  हूँ        मैं ||

इक  बयाबान  सा  लगे  ख़ुद      में |
जब  कभी  ख़ुद  को  सोचता  हूँ मैं ||

ढूंढता  फिर  रहा  हूँ  मैं  ख़ुद   को |
आम  चर्चा  में  लापता  हूँ       मैं ||

क्या  जलायेंगे  अब  मुझे    शोले ?
पेट की आग   में  जला  हूँ       मैं ||

मुझको  तस्कीन  क्यूं  नहीं  होती ?
ज़िन्दगी  आपसे  ख़फ़ा  हूँ       मैं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी  

रंज़िशें और गहरी


रंज़िशें   और   गहरी   हो   गई  हैं |
साज़िशें   और   गहरी  हो  गई  हैं ||

मौत सर पे खड़ी जीने की फिर भी |
ख़्वाहिशें  और   गहरी   हो  गई  हैं ||  

मानसूनों  के  जाने  की  ख़बर  से |
बारिशें  और   गहरी   हो   गई   हैं || 

आसमाँ  में  उड़ा  जब जब परिंदा |
बंदिशें  और   गहरी   हो   गई   हैं || 

कश्तियाँ  नाख़ुदा जब छोड़ भागा |
गर्दिशें  और   गहरी   हो   गई   हैं || 

रोज़  सरकार  को अब घेरने की |
कोशिशें और  गहरी  हो  गई  हैं || 

आज बीमार को होश आ गया है |
जुम्बिशें और  गहरी  हो  गई  हैं || 

हौड  में  सब  नुमाइश की लगे हैं |
ख़्वाहिशें और  गहरी  हो  गई  हैं ||  

Dr. Surendra saini

कोई कहता है


कोई कहता है  कुछ  जुदा  हूँ  मैं |
कोई  कहता  है   ख़ुदनुमा हूँ  मैं ||

आईना  मुझ पे  ख़ूब    हंसता   है |
ख़ुद  को  जब  भी  संवारता  हूँ मैं ||

जो  मेरी   ज़ात  से  जुड़े  पूछे  |
उन  सवालों  को  टालता  हूँ मैं ||

ज़हर  पीकर  नहीं मरा अब तक |
दार  पर  सर  धरे  खड़ा  हूँ     मैं ||

मैं  बुरा  बन  गया  हूँ    बच्चों  से |
उनके  ख़्वाबों  को  तोड़ता  हूँ  मैं ||

होश  अब  आ गये  ठिकाने  पर |
इस  ज़माने  से  ख़ारिजा  हूँ  मैं ||


जिसको पैदा किया मगर फेंका |
वो  अमीरों  का  चोचला  हूँ  मैं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

बंद आँखें मगर


बंद  आँखें  मगर  जगा  हूँ     मैं |
नींद  से  आज  लड़  पडा  हूँ  मैं ||

क्यूँ  नहीं  आ रहे  हैं ख़त उनके ?
रोज़  क़ासिद  को  डांटता  हूँ  मैं ||

कौन   कहता  है  ख़ाली  रहता  हूँ ?
उनकी  यादों  में  मुब्तला   हूँ  मैं ||

भूलने  की  क़सम  उठा       लूंगा |    
तू  अगर  बोल दे  बुरा  हूँ       मैं ||

ये  जुबां  साथ  क्यूँ    नहीं  देती ?
जब  भी  तुझको  पुकारता  हूँ मैं ||

दिल  में  उनके  उतर  नहीं  पाते |
ख़ूब  अशआर  कह  रहा  हूँ    मैं ||

सब यही सोचते मुझे    अक्सर |
आदमी कुछ न काम का हूँ   मैं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 23 November 2011

अगरचे ख़ूबसूरत हो


अगरचे  ख़ूबसूरत  हो   सँवरना       सजना      पड़ता  है |
ग़ज़ल के शेर को  मीटर  में     उसके     रखना  पड़ता है ||

अगर मेहमाँ चले तब  अलविदा  तो     कहना    पड़ता है | 
ज़रा  सा  दूर तक  तो  साथ      उसके    चलना पड़ता  है || 

किसी  लेवल  से नीचे  सादगी  अच्छी        नहीं    लगती |
दिखावे  को  सही  पर  कुछ तो ऊपर     उठना    पड़ता है || 

उठा  कर  शान  से  सर  आप  चल  देते  हैं          लोगों  में |
मगर  औलाद  के   आगे  हमेशा  झुकना            पड़ता  है || 

भले    ही   आप   बच्चों       को       निवाले    दे   रहे  सूखे |
मगर मेहमान की  रोटी  को     तो नम    करना   पड़ता है || 

बुरी  लगती  है  अक्सर  यूँ  ही  स च्ची    बात    लोगों   को |
कहें क्या सच तो सच  है और सच को   सुनना      पड़ता है ||

सभी   ताबीर   तो   बनती   नहीं   हैं   ख्व़ाब      की      बातें |
किसी  मक़सद  की  ख़ातिर  ख्व़ाब  बेशक़  बुनना पड़ता है || 

शिकायत   तो   हमेशा   आबले      पाओं    से      करते  हैं |
ज़रा  दूरी  पे  घर  हो  तो  झपट     के      चलना  पड़ता  है || 

सभी  लोगों  से  जो  सच्चा  सभी  लोगों   से  जो   अच्छा |
हमेशा  एक  होता  है  उसी को  चुनना         पड़ता       है || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी        

हर तरफ़ तोपख़ाने


हर  तरफ़   तोपख़ाने    लगे |
मौत   के   शामियाने   लगे ||

ज़द  में   सारे  नगर   आगये |
इस  तरह  से  निशाने   लगे ||

कैसी  मज़हब  परस्ती  है  ये |
लोग   मिटने   मिटाने   लगे ||

बढ़   रही   सबकी   बैचेनियाँ |
साए  ग़र्दिश   के  छाने  लगे ||

इक  शरर  सा  लिए  हाथ  में |
वो   सभी   को   डराने    लगे ||

लोग आकर सियासत में अब |
ख़ूब     ख़ाने    कमाने     लगे ||

राज़   क्या  है  ये   साक़ी  बता |
जाम  हम  तक  भी आने लगे ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी