Thursday, 24 November 2011

बात ये ख़ूब


बात   ये  ख़ूब  जानता  हूँ        मैं |
ज़िंदगी  में  ठगा  गया  हूँ        मैं ||

जिसकी अपनी नहीं कोई मंजिल |
एक  भटका  सा  क़ाफिला  हूँ  मैं ||

कितना  पीछे  रहा  हूँ  लोगों    से ?
बारहा  मुड़  के  देखता  हूँ        मैं ||

इक  बयाबान  सा  लगे  ख़ुद      में |
जब  कभी  ख़ुद  को  सोचता  हूँ मैं ||

ढूंढता  फिर  रहा  हूँ  मैं  ख़ुद   को |
आम  चर्चा  में  लापता  हूँ       मैं ||

क्या  जलायेंगे  अब  मुझे    शोले ?
पेट की आग   में  जला  हूँ       मैं ||

मुझको  तस्कीन  क्यूं  नहीं  होती ?
ज़िन्दगी  आपसे  ख़फ़ा  हूँ       मैं ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी  

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