Wednesday, 16 November 2011

ज़माने को जब


ज़माने  को  जब  भी  हँसाना   पड़ेगा |
अकेले  में  ख़ुद   को   रुलाना  पड़ेगा ||

लगाया  है  दिल  तो  निभाना   पड़ेगा |
हमेशा    ही    ख़तरा    उठाना  पड़ेगा ||

मनाना      पड़ेगा      रिझाना    पड़ेगा |
रक़ीबों    से   उनको    बचाना   पड़ेगा ||

दिखाओगे ज़ख़्मों को जब भी किसी को |
दुबारा    से     मरहम  लगाना     पड़ेगा ||

यहाँ  रोज़  कटते  हैं  सर  उठने    वाले |
तुम्हें  सर  यहाँ  पे  झुकाना      पड़ेगा ||

हवाओँ  से  ख़तरा  जहाँ  पर   बड़ा   हो |
दिए  को  संभल  कर   जलाना   पड़ेगा ||

पिएगा   न   बच्चा   दवाई    है    कड़वी |
ज़रा    सा   तो   मीठा   मिलाना  पड़ेगा ||

न जाने  वो   आये   किधर   से   निकल  के |
सभी     रास्तों    को     सजाना    पड़ेगा ||

मिलेगी  न  कोई  यूं    ही    दाद    उनसे |
तराना  मुक़ममल  सुनाना         पड़ेगा ||

नशेमन में अपने सजा तो  ली महफ़िल |
मना  कर  उन्हें  भी  बुलाना        पड़ेगा ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

No comments:

Post a Comment